‘युज’ इस संस्कृत शब्दसे ‘योग’ यह शब्द रुढ हुआ है | ‘योग’ का मतलब ‘जोडना’ या ‘संयोग होना’ | आत्मा और परमात्मा इनका संयोग योगव्दाराही होता है | हमारे ऋषिमुनीयोने शरीर, मन और प्राणोकी शुद्धी और परमात्मा की प्राप्ती के लिये ‘योगा’ के आठ अंगो की रचना की है | यहि आठ अंगो को ही ‘अष्टांग योग’ ( Ashtanga Yoga ) कह्ते है |
Ashtanga Yoga
१) यम : ‘यम’ का अर्थ है ‘निग्रह’ – ‘संयम’, जो पांच प्रकार के है | अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरीग्रह | हमारी उक्तीसे, कृतीसे और मनसे किसी प्राणिमात्राका उपद्रव नही होना चाहिये मतलब ‘अहिंसा’ | जो मनको ठिक लगेगा, जो आंखोसे देखा और कानोने सुना वो वैसेही प्रस्तुत करना मतलब ‘सत्य’ | उक्तीसे, कृतीसे और मनसे चोरी न करना या दुसरेकी संपत्तीका मोह न धरना इस का अर्थ है ‘अस्तेय’ | सर्व इंद्रियो के साथ कामविकार काबू करना मतलब ‘ब्रह्मचर्य’ | सर्व प्रकार के उपभोगो का त्याग करने का अर्थ है ‘अपरीग्रह’ |
२) नियम : यम के भांती नियम भी पांच प्रकार के होते है | शौच (शुचित्व), संतोष, तप, स्वाध्याय (अध्ययन) और ईश्वरप्राणिधान (ईश्वर की आराधना) | शौच का अर्थ है शरीर व मन का शुचित्व | अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिती मे भी चित्त (मन) को स्थानपर रखने के गुण को ‘संतोष’ (तुष्टी) कहते है | सुख-दुःख, तेज धुप-हवा-पानी इस प्रकार के संकट सहन करनेवाले शरीर व मन की साधना को ‘तप’ या ‘तपश्चर्या’ कहा जाता है | वैचारिक शुद्धी व ज्ञानप्राप्ती के लिये विचारो का जो आदानप्रदान किया जाता है, उसको स्वाध्याय (अध्ययन) कहते है | सारे कर्म ईश्वर को अर्पण कर के उक्ती, कृती और मनसे ईश्वर की भक्ती करने का अर्थ हि ‘ईश्वरप्राणिधान (ईश्वर की आराधना)’ है |
३) आसन : स्थिरमुखमासनम् | शरीर को स्थिरता व मन को प्रसन्नता प्राप्त करने की क्रिया को ‘आसन’ कहते है | पतंजलि (Patanjali) ने स्थिर तथा सुखपुर्वक बैठने की क्रिया को आसन कहा है | आसन करने से नाडीशुद्ध होती है, स्वास्थ्य वृद्धींगत होता है और शरीर व मन को स्फुर्ती प्राप्त होती है |
४) प्राणायाम : ‘प्राणायाम’ का अर्थ है ‘प्राणोपर नियंत्रण’, शरीर मे समाविष्टीत प्राणशक्तीको उद्दिपित करना, संचारित करना, नियमित करना व संतुलित करना यहि प्राणायाम का उद्देश है | जीस प्रकार शरीर की बाह्य स्वच्छता के लिये स्नान कि जरुरत होती है, उसिप्रकार मन की शुद्दी के लिये प्राणायाम की जरुरत होती है |
५) प्रत्याहार : जिस अवस्था मे इंद्रिये बाह्य विषयोमेसे मुक्त होके अंतरमुख होते है उसे ‘प्रत्याहार’ कहते है इस कारण साधकका चंचल मन व स्वेच्छाचारी इंद्रिये शांत (स्थिर) होता है | उसे परमेश्वरकी अगाध शक्तीका साक्षात्कार होकर वह ईश्वर के चरणो मे लीन हो जाता है |
६) धारणा साधक अपना शुद्ध मन किसी वस्तुपर एकाग्र करता है उसे ‘धारणा’ कहते है | धारणाव्दारा स्वतःके शांत मन (चित्त) को किसीभी विशिष्ट जगह केंद्रित करने मे साधक सफल होता है |
७) ध्यान : धारणाव्दारा जिस विशिष्ट जगह पर मनोवृत्तीको केंद्रित करना होगा, उस जगह मनोवृत्तीको सतत रखना उसिको ध्यान कहते है | धारणाव्दारा मन के अंदर के राजस व तामस यह दोषोका नाश होकर सात्विक गुणोका विकास होता है |
८) समाधी : जब साधक को सिर्फ ध्येय स्वरुप का ज्ञान होता, तब साधक ‘ध्यान’ अवस्थासे समाधी अवस्थामे प्रवेश करता है | इस तरह समाधी अवस्था प्राप्त होने से साधक ध्येय प्राप्ती के लिये तन्मय हो जाता है | ध्यान कि परिसीमा को हि समाधी कहते है |
धारणा, ध्यान व समाधी इस त्रिकुट को संयम कहते है यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार इन पांच अंगोको ‘बहिरंग योग’ कहते है |
इस प्रकार आसन अष्टांग योग ( Ashtanga Yoga ) का एक अंग है | योगाभ्यासी सिर्फ आसनही करते है | परंतु योग के आठही अंगो का महत्व है | ये आठही अंग एकसाथ आत्मसात करने से योगासन और प्राणायामव्दारा स्थायी स्वरुप का फायदा होगा |